కెట్టిలం నది యొక్క తూర్పు దిక్కున అటికై విరట్టణం దగ్గర జీవించుచున్న ఆ తండ్రి,
యముడు పెట్టు నరకంతొ సరిపొయె ఈ రొగం యొక్క బాదను మిరు నయం చెయక,
నెను చెసిన ఎన్నొ పాపపు కర్మల వల్ల ఈ రొగాన్ని పొందాను అని గ్రహించలెక,
శివుని దగ్గర ఉన్న వృషభానికి, రాత్రి పగలు తెడాలెక నిరంతరం నీ పాధాలు విడువక మొక్కుత్తున్న నెను. నా కడుపులొ మాయగ దాగి ఉండి, ప్రెగులతొ అనుసందం కుదర్చకుండ చెస్తున్నా,
నీ భానిస ఐన నెను ఈ రొగం యొక్క భాదను భరించలెక్కున్నాను, నన్ను నీ బానిసగా స్వికరింపుము.
అనువాదము: ఆచార్య సత్యవాణి, ద్రావిడ విశ్వవిద్యాలయం, కుప్పం, 2015
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1. तिरुवदिकै वीरट्टानम्
राग: कोल्लि
अप्पर स्वामी का जन्म उŸाम शैव परिवार में हुआ था। वे अद्भुत विद्वान एवं विषिष्ट गुणों से संपन्न थे। जैन श्रमणों की तार्किक बुद्धि व उनके सिद्धान्तों से अत्यधिक प्रभावित होकर वे जैन धर्म में दीक्षित हो गये। इससे उनकी बहन तिलकवती तिलमिला गई। वे तिरुवदिकै के मंदिर में प्रतिष्ठित प्रभु से प्रार्थना करती थी कि उनका भाई पुनः जैन धर्म से अपने शैव धर्म में वापस आ जाए। जैन धर्म में दीक्षित होने पर वे धर्मसेन के नाम से प्रसिद्ध हुए। जैनों के समाज में उनका पर्याप्त सम्मान था।
तमिल़नाडु के पाटलिपुत्र में रहते समय अचानक वे उदर-षूल रोग से पीडि़त हुए और असह्य पीड़ा से तड़पने लगे। औषधियों और अन्य उपचारों का कोई प्रभाव नहीं हुआ। निराषा के क्षणों में उन्हें अपनी बहन की याद आईं तब उन्होंने अपनी बहन तिलकवती को संदेष भेजा, परन्तु तिलकवती ने साफ शब्दों में कह भेजा कि वे ‘‘मरुळ तीक्कियार’’ के नाम से आने पर अवष्य उनसे मिलेंगी। यह भी कहला भेजा कि उनको अंततः जैन धर्म को त्यागना पड़ेगा। धर्मसेन इसी शर्त के अनुसार बहन से मिलने गये। बहन ने साक्षात्कार होने पर तिरुवदिकै वीरट्टानम् प्रभु का स्मरण करते हुए अपने अनुज को भस्म (विभूति) धारण करने के लिए दिया। विभूति (भस्म) लगाने से उदर-षूल की पीड़ा धीरे-धीरे दूर होने लगी। उसके बाद अपनी बहन के साथ षिव-मंदिर गए और प्रभु की सेवा की। भगवान् की आज्ञा पाकर उनकी प्रषस्ति में गाने लगे।
केडिलम् नदी-तट पर सुषोभित वीरस्थान नामक मंदिर में प्रतिष्ठित मेरे आराध्यदेव, पूज्य पिताश्री! यह उदर-रोग मेरे लिए काल सम हो गया। उसे आप विनष्ट क्यों नहीं करते? जहाँ तक मुझे ज्ञान है, मैंने कोई गुरुतर अपराध नहीं किया। रात-दिन सदा आपकी वन्दना कर रहा हूँ। आपके श्रीचरणों की आराधना कर रहा हूँ। यह उदर-पीड़ा पेट में नहीं हो रही है, अपितु अतडि़यों में प्रवेष कर अत्यन्त पीड़ा से छटपटा रहा हूँ। मैं आपका दास, इस रोग-पीड़ा को सहन नहीं कर सकता । इस असहनीय पीड़ा से मुझे छुटकारा देकर प्रभु मेरा उद्धार करो।
रूपान्तरकार डॉ.एन.सुन्दरम 2000
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the father who dwells in Atikai Vīraṭṭāṉam on the northern bank of Keṭilam!
you do not cure my disease which is giving me pain like the god of death.
I do not know that I did many cruel acts intentionally to get this disease.
Civaṉ who has a bull!
I bow to your feet only, always night and day without leaving them.
being invisible.
inside my belly.
to disable me by binding together with the intestines.
I who am your slave could not bear the pain
you must admit me as your slave removing the disease.
Translation: V.M.Subramanya Aiyar–Courtesy: French Institute of Pondichery / EFEO (2006)