1. तिरुवेण्णैनल्लूर
(पौराणिक कथाओं में यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि भक्त आलाल सुन्दरर् अपने आराध्यदेव शिव की सेवा में कैलाश पर्वत पर रहते थे। वह आराध्यदेव की पूजा के निमित्त पुष्प लेने के लिए नन्दनवन गए। वहाँ उस समय पार्वती की दो सेविकाएँ-अनिंदितै और कमलिनी पुष्प चयन के लिए आई थीं। आलाल सुन्दरर् उन सुन्दरियों पर मोहित हो गए। उनकी प्रेमानुभूति से शिव प्रसन्न हुए और उन्हें आदेश दिया कि तुम तीनों भूलोक में जन्म लेकर, कामनाओं की तृप्ति के उपरान्त पुनः यहाँ आ सकते हो।
इस घटना के फलस्वरूप उन तीनों ने तमिलनाडु के तिरुनावलूर नामक स्थान में जन्म लिया। पिता चडैयनार और माता इसैज्ञानिचार ने पुत्रा का नाम नम्बि आरूरर रखा। विवाह योग्य होने पर उनका विवाह निश्चित किया गया। विवाह-मण्डप में एक वृद्ध ब्राह्मण आए। सबके समक्ष उन्होंने यह घोषणा की कि यह नम्बि आरूरर मेरा दास है। इसको मेरी दास-वृत्ति करनी चाहिए। सुन्दरर् की समझ में कुछ भी नहीं आया। उन्होंने गुस्से में आकर कहा, एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का दास हो ही नहीं सकता। क्या आप ‘उन्मत्त’ हैं? ब्राह्मण ने प्रमाण के रूप में ताड़-पत्रा दिखाया। गुस्से में आकर सुन्दरर् ने ताड़-पत्रा फाड़कर फेंक दिया। तब आगन्तुक ब्राह्मण ने पुनः एक-एक ताड़-पत्रा सबको दिखाया। उसमें लिखा था-‘‘हमारी संतति इस वृद्ध की दासता स्वीकार करेगी।’’ आगन्तुक के निवास स्थान का पता लगाने पर वृद्ध ने कहा-‘‘मेरा निवास स्थान कोई नहीं जानता। मेरा अनुगमन कीजिए। आइए।’’ यह कहते हुए वृद्ध ब्राह्मण मन्दिर की ओर बढ़े। वहाँ से अन्तर्धान हो गए। सबने अनुभव किया कि आगन्तुक वृद्ध कोई और नहीं, स्वयं शिव थे। सुन्दरर् पश्चात्ताप की आग में झुलसने लगे, तब आकाशवाणी सुनाई पड़ी- ‘‘तुमने बड़ी कुशलता के साथ हमसे वाद-विवाद किया पर उग्रता का व्यवहार किया। तुम आज से ‘वन् तोण्डन’ (उग्र सेवक) कहलाओगे। मुझे केवल स्तुति गीत पसन्द हैं। तुम मेरा स्तुति गान करो। तुमने मुझे ‘उन्मत्त’ कहकर संबोधित किया। उसी उपालम्भ से स्तुति गीत प्रारम्भ करो।’’ शिव के आदेशानुसार ‘पिता पिरैसूड़ि’-उन्मत्त प्रभु चन्द्रकलाधारी से सुन्दरर् ने स्तुति गीत प्रारम्भ किया।
प्रस्तुत दशक ‘इन्दकम्’ राग में विरचित है। यह दशक ‘तिरुवेण्णैनल्लूर’ स्थान में स्थित तिरुअरुट्तुरै मन्दिर में गाया गया है। यह पेण्णार (पिणाकिनी) नदी तट पर स्थित है।)
उन्मत्त प्रभु! चन्द्रकलाधर! करुणानिधि!
तिरुवेण्णैनल्लूर के पेण्णार नदी तट पर स्थित,
तिरुअरुट्तुरै देवालय में प्रतिष्ठित प्रभु!
मेरे हृदय में तुमने अमिट स्थान बना लिया है।
मैं आपको कभी विस्मृत न करके;
सदा अपने हृदय में स्मरण करता हूँ।
मैं पहले से ही आपका सेवक बन गया हूँ।
अब यह कहना कदापि उचित नहीं कि-
मैं आपका सेवक नहीं हूँ।
रूपान्तरकार डॉ.एन.सुन्दरम, 2007